पिछले कुछ दिनों से मोहल्ले के मनचले बहुत धार्मिक लग रहे थे,
उनके माथे पे तिलक और हाथों में गरबा, गधे पे सींग की तरह जच रहे थे!
हमारी उत्सुकता कुछ कुलबुलाई, भक्ति-धारा ये पाषाण कैसे पार कर पाई?
समाचार का प्रभाव हो या मानव स्वभाव - हमे तो इस परिवर्तन में किसी षड्यंत्र की बू आई!
पर खैर, भक्ति और धर्म पे कौन लगा सका है लगाम?
रास छुपा कहीं राक्षस में , कहीं आसाराम से उन्मुख राम !
बहोत प्रयास के बाद भी जब प्रश्नों ने हथियार नहीं डाले,
आधुनिक धर्म रक्षकों से कुछ सवाल हमने पूछ ही डाले!
"ओ सर्व-सुसज्जित दिव्य जनों, क्या चल रहा था ये पिछले दिनों?"
'बस यूँ ही, नहीं कुछ ख़ास - देवी दर्शन और डांडिया रास!'
ये भी सही कलियुग है, भ्रमित आस्था डगमग है
देवी महिमा ये क्या समझें, जब रास विलास सब एकरस हैं!
"आभार आपके पुण्य कर्म का, इश्वर जाने अपने धर्म का,
वैसे ये दिव्यास्त्र लिए, आप सब सुरमा कहाँ चले?"
'अरे! आपको पता नहीं? आज दशहरा पर्व है!
सबसे ऊंचा रावण हम जलाएंगे, इस बात का हमको गर्व है! '
"सुना है रावण ग्यानी थे, माना थोड़े अभिमानी थे,
सीता हरण तो किया अवश्य, पर मान रखा उनका जस-का-तस,
क्यूँ उनका पुतला जलाते हो? प्रदुषण फैला क्या पाते हो?"
'अरे! इतना तो आप भी जानेंगे, बरसों की प्रथा को मानेंगे,
रावण एक विचार है, दुष्कर्म है, दुराचार है!
हम प्रतीक मात्र को जलाते हैं, सच की विजय दिखाते हैं!'
"फिर ये तो कोरी मिथ्या है, बिना काम की विद्या है!
कोई अपनों को ऐसे जलाता है? रावण तुम सब का भ्राता है!
अपने अंतर भी कभी देखो, आचार-विचार को थोडा परखो,
पुतला दहन करने के बाद, थोड़ी आंच तुम भी तो चखो!"
कलियुग में राम का विजय पताका, बस एक दिवस की रीत है,
वैचारिक रावण जीवित है अब भी, बलशाली है अपराजित है!