न जाने खुद से रोज़ लड़ के वो क्या पाता है?
आदमी चंद लकीरों से मात खाता है.
तमाम किस्म के रंजों से नवाज़ा है मुझे,
उस खुदा से मेरा बरसों पुराना नाता है.
कभी बेजाँ, कभी दबा रहे पैरों के तले,
वही पत्थर भी कभी चाँद बन इतराता है.
ज़िन्दगी सोच के मानिंद कब हुई है जनाब,
ये बादशाह तुघलकी फरमान ही सुनाता है.
ग़म से दोस्ती करना ही अब मुनासिब है,
ज़िद्दी मेहमान है, बिन बुलाए चला आता है!
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