Tuesday, September 25, 2012

ये नया चलन है

सुबह-सुबह सूरज से पहले कुछ परिंदे आये,

पता नहीं किस भाषा में पर खूब बातें की मुझसे।

सुनता ही रहा मैं। मेरी बातें तो उन्हें समझ नहीं आती न!


शाम होते तक एहसास हुआ - परिंदे नहीं,  फ़रिश्ते थे!

आगाह करने आये थे आने वाले दिनों के लिए।

सुनते रहो ज़माने की, खुद की बस अपने से कहो।

रोज़ बदलते ज़माने का ये नया चलन है।
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