ऐ खुदा मुझे भी नवाज़ दे कुछ ऐसी अर्श-ए-बंदगी,
जो ज़िन्दगी को ख्वाब दे और ख़्वाबों को ज़िन्दगी|
क्यूँ पलकें मूँद कर चाहते हैं हम नयी दुनिया यहाँ?
बुझती कहाँ हैं अश्कों से भी आँखों की ये तिशनगी|
जो तू रहता है हर ज़र्रे में और हर सांस है रहमत तेरी,
किस फलसफे में उलझे हैं हम, है नाम जिसका ज़िन्दगी?
दे नियाज़ वो के बन्दे तेरे अपने मसीहा खुद बने,
वो चिराग ही रौशन हुए जिनमे तेरी है लौ जगी|
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